भारतीय टीवी मीडिया
वैसे तो टीवी, इन्टरनेट से पहले भी मीडिया समाज का स्तम्भ था, जन मंच था, अखबारों, पत्र, पत्रिकाओं, पुस्तकों के जरिये किन्तु बीते दो दशकों में टीवी मीडिया एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है जन जन तक टीवी की सुलभ पहुँच के कारण ही टीवी मीडिया इतना ताकतवर बन सका इसमें कोई शक की बात नहीं है तात्कालिक इतिहास में टीवी मीडिया की सकारात्मकता के कई उदाहरण भी मौजूद है परन्तु जब हम आज टीवी के सामने बैठते है तो ऐसा महसूस होता है कि कहीं न कहीं भटकाव ज़रूर है आज टीवी पर चेनलों कि बाढ़ आयी हुई है, लेकिन कहीं कोई नयापन नज़र नहीं आता साहित्य समाज का दर्पण है, किन्तु जब टीवी ने साहित्य से ही नाता तोड़ लिया है तो स्पष्ट है टीवी मीडिया समाज का दर्पण रह ही नहीं गया है कुछ कार्यक्रमों को छोड़ दे तो अधिकांश का नैतिक, सामाजिक, मानवीय मूल्यों से दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं है आप विश्वास नहीं करेंगे परन्तु पिछले ८ वर्षों से मेरे घर में टीवी नहीं है, जबकि उससे पहले था क्योंकि अब कभी इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती जब भी कहीं टीवी देखता हूँ (मित्रों, रिश्तेदारों या कहीं भी), तो विश्वास नहीं होता है कि क्या ये वो ही टीवी है जिस पर रामायण देखकर, साहित्यिक धारावाहिक देखकर, खबरे सुनकर मैं बड़ा हुआ था, जिसे मैं ज्ञान का बॉक्स मानता था आज भी कार्यक्रम है, खबरे भी है, धारावाहिक भी है, किन्तु वो उनमे वो भावना नहीं है, वो जुडाव नहीं है उन सबमे अब एक होड़ ज्यादा है सत्यता कम है और काल्पनिकता ज्यादा है इन सबमे कहानी, कविता और घटनाक्रम को मार दिया गया है संवाद काल्पनिक है, ज़रुरत से ज्यादा है, दिखने दिखाने की प्रवृति अधिक है, होने की कम सब चैनल एक दूसरे की होड़ करते नज़र आते है हर और बस टीआरपी बढाने का प्रयत्न हो रहा है, इस खेल में तो जीत एक की या दो की हो सकती है परन्तु मानवीय मूल्य कहाँ गए, कहाँ गया समाज ? हर और या तो रिअलिटी शो है, सास बहूँ के साजिशे है, एक दूसरे के अनैतिक सम्बन्ध है, अश्लीलता, हिंसा या फिर खबरों के नाम पर अंधविश्वास और कीचड उछलने का प्रक्रम मौलिकता और मानवीयता नाम की तो चीज़ है ही नहीं रिअलिटी शो के मामले में किसी ने अमेरिकी, तो किसी ने यूरोपीय चेनलों की नक़ल की है और भोंडी संस्कृति का भोंडा प्रदर्शन, नंगापन का खुला नाच किया है कहीं संगीत तो कहीं नाच तो कहीं लाफ्टर के नाम पर उन बच्चों पर ज़रुरत से ज्यादा बोझ डालकर उनका बचपन छीना जा रहा है जिनकी उम्र अभी पढ़ने की है, और हम उन्हें देखकर वाह और आह कर रहे है इस चक्कर में असली मौज तो चेनल तथा मोबाइल कंपनियों की हो रही है जिनके मेसेज से मतदान हो रहा है
खबरे भी अब खबर कम और खबर के नाम पर पोस्टमार्टम अधिक है, चीजों को ऐसे दिखाया जाता है मानो उससे बड़ी खबर कोई है ही नहीं इस बीच जो असली खबर थी न जाने कहाँ दबी रह जाती है ब्रेकिंग न्यूज़ की होड़ में कई बार चैनल कई बार गलत खबर देने से भी नहीं हिचकिचाते खबरों की जांच भी कई बार नहीं होती उदहारण के लिए- एक तेलगु चैनल ने राजशेखर रेड्डी की मौत को रिलायंस की साज़िश करार दिया था वो भी एक रुस्सियन वेबसाइट के हवाले से, जो वहां भी प्रतिबंधित है फलस्वरूप हिंसा भड़क उठी थी न्यूज़ चैनल कई बार झूठे स्टिंग ऑपरेशन करके लोगों को बदनाम करते है और राजनीती से भी बाज़ नहीं आते पिछले कई वर्षों में ऐसे कई उदहारण मौजूद है असली खबर और समाज से जुडी, आम आदमियों की खबरों से मीडिया को कोई सरोकार नहीं क्योंकि वे चटपटी नहीं है वे मान लेते है कि ये सब तो रोज़ ही होता है, इसमें कोई मसाला नहीं बस भड़काऊँ, अश्लील और हस्तियों की निजी खबरों के पीछे पड़े है सारे न्यूज़ चैनल कोई कोई तो अंधविश्वास को सत्य बताकर देश की अशिक्षित,भोली जनता के साथ खिलवाड़ कर रहे है कुल मिलाकर मीडिया आज गलत दिशा में चला गया है इसमें कोई दो राय नहीं है टीवी मीडिया को ज़रुरत है आज समाज की सही तस्वीर दिखाने की, साहित्य से जुड़ने की और चटपटी चीजों से तौबा कर पुनः मानवीय और सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित करने की, क्योंकि लोग वहीँ देखते है जो दिखाया जाता है, ज़रुरत है होड़ को छोड़कर मौलिकता के साथ समाज से जुड़ने की, तभी टीवी मीडिया अपना खो रहा रास्ता तलाश कर सकेगा