शनिवार, 9 जनवरी 2010

नव चेतना उत्सव - /मनीष जैन का आर्टिकल


भारतीय टीवी मीडिया

वैसे तो टीवी, इन्टरनेट से पहले भी मीडिया समाज का स्तम्भ था, जन मंच था, अखबारों, पत्र, पत्रिकाओं, पुस्तकों के जरिये किन्तु बीते दो दशकों में टीवी मीडिया एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है जन जन तक टीवी की सुलभ पहुँच के कारण ही टीवी मीडिया इतना ताकतवर बन सका इसमें कोई शक की बात नहीं है तात्कालिक इतिहास में टीवी मीडिया की सकारात्मकता के कई उदाहरण भी मौजूद है परन्तु जब हम आज टीवी के सामने बैठते है तो ऐसा महसूस होता है कि कहीं न कहीं भटकाव ज़रूर है आज टीवी पर चेनलों कि बाढ़ आयी हुई है, लेकिन कहीं कोई नयापन नज़र नहीं आता साहित्य समाज का दर्पण है, किन्तु जब टीवी ने साहित्य से ही नाता तोड़ लिया है तो स्पष्ट है टीवी मीडिया समाज का दर्पण रह ही नहीं गया है कुछ कार्यक्रमों को छोड़ दे तो अधिकांश का नैतिक, सामाजिक, मानवीय मूल्यों से दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं है आप विश्वास नहीं करेंगे परन्तु पिछले ८ वर्षों से मेरे घर में टीवी नहीं है, जबकि उससे पहले था क्योंकि अब कभी इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती जब भी कहीं टीवी देखता हूँ (मित्रों, रिश्तेदारों या कहीं भी), तो विश्वास नहीं होता है कि क्या ये वो ही टीवी है जिस पर रामायण देखकर, साहित्यिक धारावाहिक देखकर, खबरे सुनकर मैं बड़ा हुआ था, जिसे मैं ज्ञान का बॉक्स मानता था आज भी कार्यक्रम है, खबरे भी है, धारावाहिक भी है, किन्तु वो उनमे वो भावना नहीं है, वो जुडाव नहीं है उन सबमे अब एक होड़ ज्यादा है सत्यता कम है और काल्पनिकता ज्यादा है इन सबमे कहानी, कविता और घटनाक्रम को मार दिया गया है संवाद काल्पनिक है, ज़रुरत से ज्यादा है, दिखने दिखाने की प्रवृति अधिक है, होने की कम सब चैनल एक दूसरे की होड़ करते नज़र आते है हर और बस टीआरपी बढाने का प्रयत्न हो रहा है, इस खेल में तो जीत एक की या दो की हो सकती है परन्तु मानवीय मूल्य कहाँ गए, कहाँ गया समाज ? हर और या तो रिअलिटी शो है, सास बहूँ के साजिशे है, एक दूसरे के अनैतिक सम्बन्ध है, अश्लीलता, हिंसा या फिर खबरों के नाम पर अंधविश्वास और कीचड उछलने का प्रक्रम मौलिकता और मानवीयता नाम की तो चीज़ है ही नहीं रिअलिटी शो के मामले में किसी ने अमेरिकी, तो किसी ने यूरोपीय चेनलों की नक़ल की है और भोंडी संस्कृति का भोंडा प्रदर्शन, नंगापन का खुला नाच किया है कहीं संगीत तो कहीं नाच तो कहीं लाफ्टर के नाम पर उन बच्चों पर ज़रुरत से ज्यादा बोझ डालकर उनका बचपन छीना जा रहा है जिनकी उम्र अभी पढ़ने की है, और हम उन्हें देखकर वाह और आह कर रहे है इस चक्कर में असली मौज तो चेनल तथा मोबाइल कंपनियों की हो रही है जिनके मेसेज से मतदान हो रहा है
खबरे भी अब खबर कम और खबर के नाम पर पोस्टमार्टम अधिक है, चीजों को ऐसे दिखाया जाता है मानो उससे बड़ी खबर कोई है ही नहीं इस बीच जो असली खबर थी न जाने कहाँ दबी रह जाती है ब्रेकिंग न्यूज़ की होड़ में कई बार चैनल कई बार गलत खबर देने से भी नहीं हिचकिचाते खबरों की जांच भी कई बार नहीं होती उदहारण के लिए- एक तेलगु चैनल ने राजशेखर रेड्डी की मौत को रिलायंस की साज़िश करार दिया था वो भी एक रुस्सियन वेबसाइट के हवाले से, जो वहां भी प्रतिबंधित है फलस्वरूप हिंसा भड़क उठी थी न्यूज़ चैनल कई बार झूठे स्टिंग ऑपरेशन करके लोगों को बदनाम करते है और राजनीती से भी बाज़ नहीं आते पिछले कई वर्षों में ऐसे कई उदहारण मौजूद है असली खबर और समाज से जुडी, आम आदमियों की खबरों से मीडिया को कोई सरोकार नहीं क्योंकि वे चटपटी नहीं है वे मान लेते है कि ये सब तो रोज़ ही होता है, इसमें कोई मसाला नहीं बस भड़काऊँ, अश्लील और हस्तियों की निजी खबरों के पीछे पड़े है सारे न्यूज़ चैनल कोई कोई तो अंधविश्वास को सत्य बताकर देश की अशिक्षित,भोली जनता के साथ खिलवाड़ कर रहे है कुल मिलाकर मीडिया आज गलत दिशा में चला गया है इसमें कोई दो राय नहीं है टीवी मीडिया को ज़रुरत है आज समाज की सही तस्वीर दिखाने की, साहित्य से जुड़ने की और चटपटी चीजों से तौबा कर पुनः मानवीय और सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित करने की, क्योंकि लोग वहीँ देखते है जो दिखाया जाता है, ज़रुरत है होड़ को छोड़कर मौलिकता के साथ समाज से जुड़ने की, तभी टीवी मीडिया अपना खो रहा रास्ता तलाश कर सकेगा

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

भारतीय टीवी मीडिया : अयथार्थवादी और तथाकथित
जी हां , नव चेतना उत्सव का आज और कल का विषय यही है ।
मीडिया ने बीते वेर्शो में अपने मूल्यों को टाक पर रख कर
केवल और केवल अपनी टीआरपी पर फोकस किया है ।
अपनी राय और आलेख ...केशव जांगिड @जीमेल .कॉम पर दे...
मनोरंजन कलश के फरवरी अंक का विषय यही है ...आप
पाएगे पत्रिका में भी स्थान ......

नव चेतना उत्सव -२०१० / मनोज सिंह का आलेख

हिन्दी जगत का आईनापिछले दिनों मैंने एक प्रयोग किया। उद्देश्य था वास्तविकता को जानना। प्रयोग, सत्य तक पहुंचने का एक बेहतर व विश्वसनीय माध्यम है। पढ़ने व सुनने से आधी-अधूरी बात का ही पता चल पाता है। और मात्र देखकर अनुमान लगाने से भ्रम की स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। कहते भी हैं, बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। नदी के प्रवाह की तीव्रता देखनी हो तो बिना पानी में उतरे हुए अंदाज ही लगाया जा सकता है। कल्पनाएं सदा हकीकत के नजदीक हो जरूरी नहीं। और दुनिया को जानने के लिए नींद से जागना होता है। हां, प्रयोग करने में शारीरिक, मानसिक और आर्थिक व्यय भी है। फिर भी यह बोझ एक जुनून के तहत मैंने उठाया। यह सब अगर अपनी सीमा व सामर्थ्य में रहकर किया जाए तो किसी सच को जानने समझने के लिए चंद रुपए कोई भारी कीमत नहीं। जानना चाहता था कि हिन्दी जगत में लेखक, आलोचक, पत्रकार और प्रबुद्ध पाठक किसी अन्य साधारण अनजान लेखक की रचना-पुस्तक प्राप्त होने पर कैसी प्रतिक्रियाएं करते हैं? मैंने अपनी नवीनतम पुस्तक ÷मेरी पहचान' कहानी संग्रह को, तकरीबन पचास-साठ व्यक्ति विशेष को पढ़ने के लिए डाक द्वारा सप्रेम भेजने की योजना बनाई। सूची में अधिकांश जाने-माने लेखक, कहानीकार, निबंधकार, स्तंभकार के साथ-साथ विभिन्न कॉलेज और विश्वविद्यालय के प्राध्यापक भी शामिल थे। इसमें दूसरे क्षेत्रों से आकर लेखन की दुनिया में जोर-आजमाइश कर रहे उच्च पदस्थ अधिकारियों के नाम भी थे। ये सभी हिन्दी जगत के चर्चित नाम थे। पत्र-पत्रिकाओं से इनके पते लिये गए थे। सही वर्तमान पता जानने के लिए विभिन्न सूत्रों से इसकी दोहरी जांच कर ली गई थी। मकसद था यह सुनिश्चित करना कि किताब सही हाथों में पहुंचे। इनमें से अधिकांश से मेरी न तो व्यक्तिगत मुलाकात थी न ही कभी बातचीत हुई थी। असल में जानकार लोगों को पुस्तक भेजने पर सही वस्तु-स्थिति का पता नहीं लग पाता। क्योंकि वे या तो किसी न किसी कारण से संपर्क में रहते हैं और बातचीत करते रहते हैं, और न भी हो तो पुस्तक प्राप्त होने पर इसका जिक्र करने के लिए फोन जरूर करते। ऐसी परिस्थिति में उचित जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती। यही कारण है जो मैंने उन लोगों को चुना जो नामी, प्रबुद्ध और निरंतर लिख रहे हैं और जिनसे मेरा सीधे कोई संपर्क नहीं। वैसे इनमें से, किसी ने, कहीं किसी पत्र-पत्रिका में मुझे भी पढ़ रखा हो तो मैं इससे इंकार नहीं कर सकता।उपरोक्त प्रयोग के परिणाम आश्चर्यजनक ही नहीं, मेरी कल्पना से भी बाहर थे। असल में विश्लेषण और अपना मत तो मैं तब देता जब किसी तरह का कोई परिणाम प्राप्त होता। यहां तो सन्नाटा था। कोई प्रतिक्रिया नहीं। पूर्णतः निष्क्रियता। मुझे इन पचास सज्जन पुरुष-महिलाओं में से किसी से भी कोई भी न तो पत्र की प्राप्ति हुई और न ही कोई फोन आया। किसी भी एक ने, शायद किसी भी तरह की सूचना देने की आवश्यकता नहीं समझी। पुस्तक पर चर्चा करना तो फिर बहुत दूर की बात है। हां, एक-दो फोन जरूर आए थे, वो भी इस बात को जानने के लिए कि उनका पता मुझे कहां से मिला। यह सब मेरे लिये अप्रत्याशित था।कुछ वर्ष पूर्व मैंने अपनी एक पुस्तक खुशवंत सिंह जी के पते पर अति उत्सुकतावश भेजी थी। मैं एक साधारण आम नागरिक हूं और तब तक मेरी उनसे व्यक्तिगत मुलाकात भी नहीं हुई थी। कुछ दिनों के अंदर ही मुझे हस्तलिखित एक पोस्टकार्ड मिला था, जिसमें खुशवंत सिंह जी ने पुस्तक प्राप्त होने की सूचना दी थी। पत्र में इस बात पर खेद व्यक्त किया गया था कि वह हिन्दी आसानी से नहीं पढ़ पाते। साथ ही उन्होंने लेखन में निरंतर आगे बढ़ने की शुभकामनाएं दी थीं। यहां तक लिखा था कि अगर इस उपन्यास का अंग्रेजी रूपांतरण/अनुवाद होता है तो वह इसकी एक प्रति पढ़ने के लिए अवश्य चाहेंगे।खुशवंत सिंह जी यकीनन एक लोकप्रिय अंग्रेजी लेखक हैं। उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां शरीर हर प्रकार के अवरोध उत्पन्न करता है, तंग करता है। जितना वह लिखते हैं उस हिसाब से बेहद व्यस्त भी होंगे। उनकी सफलता और लोकप्रियता के कारण उन्हें पुस्तक भेजने वाले व पत्र लिखने वाले सैकड़ों में होंगे। इसके बावजूद उन्होंने पत्र लिखकर मुझे जवाब दिया। अर्थात वह हर एक को पत्र का उत्तर देते होंगे। यह गुण प्रशंसनीय है। यह उनके लोकप्रिय होने का एक कारण भी हो सकता है। यह उनकी महानता और इंसानियत भी है। उनकी इस छोटी-सी बात से मैं भी उनका प्रशंसक बन गया। इसी तरह से सैकड़ों-हजारों प्रशंसक उनके पाठकवर्ग में जुड़ते रहते होंगे।उपरोक्त उदाहरण से कुछ बातें साफ हैं। कहने के लिए कुछ विशेष नहीं रह जाता। यह सत्य है, हिन्दी जगत में एक तरह की निष्क्रियता है। उदासीनता है। सक्रियता है भी तो उसकी परिधि अपने आसपास के छोटे से दायरे में सिमट कर रह जाती है। यह उदाहरण इस प्रश्न का बहुत हद तक जवाब भी है कि हमारे यहां लोकप्रिय लेखक जन्म क्यों नहीं ले पा रहे? महान बनने के लिए, लोकप्रियता के लिए, छोटे-छोटे मगर सिद्ध सैद्धांतिक कार्य करने होते हैं। इनके माध्यम से हम अपने पाठक से सदा के लिए जुड़ जाते हैं। प्रश्न उठता है कि हम किसी भी कार्य को पूरी ईमानदारी के साथ करने से क्यों हिचकिचाते हैं? जीवन के छोटे-छोटे व्यवहारिक मूल्यों और शिष्टता को क्यों नहीं निभाते? जबकि भारतीय सभ्यता व संस्कृति सामाजिक मूल्यों व आदर्शों पर टिकी हुई बताई जाती है। तो फिर कहीं यह अहं तो नहीं? हो सकता है।इस उदाहरण को देखें, स्कूल-कालेज से लेकर कार्यालय तक में हर छोटा कर्मचारी अपने से बड़े को नमस्कार करता है और बदले में हल्की-सी मुस्कुराहट मात्र से भी प्रोत्साहित हो जाता है और यही नहीं स्वयं को सामने वाले से जुड़ा हुआ महसूस करता है। उसे लगता है उसे पहचाना गया है। उसके अंदर आत्मविश्वास का प्रवाह तीव्र गति से होता है। चेहरे और आंखों में चमक उभरती है। वह ऊर्जा से भर जाता है। और जब उसे अपने अभिवादन/नमस्कार का जवाब नहीं मिलता तो सामने वाले को वह घमंडी, बदतमीज और सिरफिरा करार देता है। पीठ पीछे उसकी बुराई करता है। हंसी उड़ाता है। डर, अगर कारण रहा तो कुछ दिनों तक तो वह सलाम करता रहेगा लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वह भी करना छोड़ देता है। और इस तरह से वरिष्ठ नागरिक फिर चाहे वो अध्यापक हो या अधिकारी, धीरे-धीरे अपने अधीनस्थ कर्मचारी व छात्र से कट जाते हैं। ऐसे लोग अलोकप्रिय रह जाते हैं। उनसे कोई बात करना पसंद नहीं करता। इससे ठीक उलटा जो मुस्कुराकर जवाब दें वह लोकप्रिय और जाना-पहचाना नाम कहलाता है। यह एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है।तो क्या वजह है कि मुझे एक भी हिन्दी के विद्वान सज्जन से पुस्तक प्राप्त होने की सूचना तक प्राप्त नहीं हुई? दूरभाष पर कोई बातचीत नहीं हुई? जबकि मैंने विशेष रूप से अपना मोबाइल नंबर पुस्तक पर लिखा था। तो क्या यह मान लिया जाये कि हिन्दी का लेखक अत्यंत व्यस्त है? या यह स्वीकार कर लिया जाये कि उसे एक साधारण औपचारिकता अदा करने की आदत भी नहीं रही? क्या उसके व्यक्तित्व में आदर्श व संस्कारों की कहीं कमी हो गई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके अंदर किसी झूठे अहंकार का भाव हो कि उसके पास इस तरह की पुस्तकें तो आती रहती हैं? मेरा अनुमान है मेरी पुस्तक को कुछ एक ने पलट कर देखा होगा। जिन्होंने मेरा नाम सुना होगा उन्होंने कुछ पन्नों को पढ़ा भी होगा। हो सकता है कुछ एक ने पूरी पुस्तक पढ़ी हो। लेकिन अधिकांश ने उसे किनारे फेंक दिया होगा, ऐसी मैं कल्पना कर रहा हूं। इस सत्य को जानने के लिए कि मेरी किताब किस तरह से फेंकी गई होगी? प्रयोग करने का कोई भी दूसरा तरीका नहीं है मेरे पास। मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहता। लेकिन उपरोक्त प्रयोग का अनुभव अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है। एक सामान्य नये युवा लेखक व पाठक के लिए यह कितना पीड़ादायक होता होगा, मैं अब समझ सकता हूं। भावनाओं को कितनी ठेस पहुंचती होगी, वह कितना हतोत्साहित होता होगा, आज मैं जान चुका हूं। यह हमारे हिन्दी जगत की वर्तमान स्थिति का आईना मात्र है और शायद एक प्रमुख कारण भी। यह हमारी मानसिकता को भी प्रदर्शित करता है। हमारा लेखन का प्रबुद्ध समाज कितना समझदार और व्यवहार कुशल है यह इस बात को भी दर्शाता है। किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं। ऐसा नहीं कि उपरोक्त वस्तुस्थिति सिर्फ लेखन के क्षेत्र में ही है, आधुनिक भारत के हिन्दी जगत में तथाकथित अन्य सफल लोगों के द्वारा इस तरह के व्यवहार की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। हां, इस प्रयोग का प्रभाव मुझ पर गहरा पड़ा है। अब तक तो मैं किसी भी पुस्तक के प्राप्त होने की सूचना फोन पर या पत्र के माध्यम से कभी-कभी भेजा करता था, पत्र व ईमेल के जवाब देने की कोशिश में रहता था। मगर अब सोचता हूं कि आगे से हर एक पत्र और पुस्तक प्राप्त होने पर जवाब अवश्य दूंगा। चाहे फिर वो एक शब्द या पंक्ति का ही क्यूं न हो। यह मेरी तरफ से एक छोटी मगर अच्छी शुरुआत होगी। क्या आप कर सकेंगे?

(आपके कुशल प्रयास के लिए साधुवाद - केशव जांगिड )

नव चेतना : हिंदी विषये पर केशव सिंह की राय

मानसिकता तो दोहरी हो गई है, पर हमें अपने अस्तित्व के लिए, अपने देश, संस्कृति, नैतिक विचारों, मूल्यों, के लिए कुछ न कुछ प्रयास तो करना ही पडेगा नहीं तो वे दिन दूर नहीं जव हम सभी अपनी बात को किसी अपने के साथ प्रस्तुत करने के लिए किसी अपनी भाषा को ढूंढते रहेगे। फिर क्या होगा कि हमे अपनो की ही वात समभ से परे लगेगी......हमें अपनी भाषा पर शर्मिंदा होने ... बदले गौरव होना चाहिए और यह पहल हम जैसी युवा पीढी को करनी पडेगी जो एक भटकाव की ओर बढ रहे है औ............. और जो यह पहल कर रहें है उनका साथ देना चाहिए......... केशव जांगिड जी के साथ सभी हिन्दी प्रेमियों को धन्यवाद.......

डाक्टर कविता किरण की रचना , केयर टू केयर की प्रमुख डाक्टर मोना कपूर का जीवन , डाक्टर जयप्रकाश गुप्त का हिंदी समीक्षा आलेख ,केशव जांगिड की कहानी विपिन चोधरी का नारी की पीढ़ा पर आलेख , मंजरी जोशी से एक मुलाकात ,भारतीय मीडिया पर विनोद विप्लव का व्यंग्य , और प्रभाष जोशी की रचनाये .....अंक जो आपको सोचने पर वि......व...श कर दे ॥प्रति मंगवाए या सदस्यता ले ॥ मूल्य मात्र ..१० /-वार्षिक - १०० /- मात्रफ़ोन - ०९२१०५००१६३ ( दिल्ली )मेल - मनोरंजन कलश @ जीमेल .कॉम
आपका एड्रेस दे , मनोरंजनकलश का नव चेतना विशेषांक पोस्ट किया जाएगा ।
कौशल किशोर (संपादक )
केशव जांगिड ( उप - संपादक )

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

नव चेतन उत्सव - २०१०/ मनीष जैन

हिंदी भाषा ,दशा और दिशा : कौन जिम्मेदार?

आज यदि हमें ईमानदारी से इस प्रश्न का उत्तर देने को कहा जाए कि हम अपने बच्चों को कैसे स्कूल में पढ़ाना चाहते है ? तो हममे से अधिकाँश का यहीं उत्तर होगा कि - इंग्लिश मीडियम में क्यों? आखिर ऐसी क्या नौबत आ पड़ी ? जवाब ढूँढने पर यही मिलता है कि कहीं हिंदी मीडियम से पढ़कर हमारा बच्चा पिछड़ न जाए, अंगरेजी स्कूल में पढेगा तो होशियार न होते हुए भी कुछ तो कर ही लेगा, भले ही हिन्दी मीडियम का कितना ही बढ़िया स्कूल क्यों न हो आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ हद तक यह बात सही है भी किन्तु मेरे विचार से असल लड़ाई अंगरेजी और हिंदी में है ही नहीं कोई भी भाषा बुरी हो ही नहीं सकती आखिर वो तो संपर्क का जरिया है, समाज की वाणी है तो प्रश्न उठता है कि भाषा को लेकर कौन लड़ रहा है, लड़ा रहा है और क्यों ? असल में लड़ाई अन्ग्रेजीवाद और हिंदीवाद में है अन्ग्रेजीवाद से आशय हमारे देश में उस मानसिकता से है, उस तबके से है जो अपने को अलग बताने के लिए, अपने को ऊंचा बताने के लिए, अपने अहम् की पुष्टि के लिए अंगरेजी का सहारा लेते है चूंकि हमारे देश में अंगरेजी कभी आम जनता की भाषा नहीं रही मगर वो किसी समय शासक वर्ग की भाषा थी इसीलिए अंगरेजी को स्टेटस के रूप में प्रयोग किया गया किसी अन्य भाषा को नहीं और यही स्वभाव आज भी कायम है और पुष्ट ही हो रहा है जबकि स्वतंत्रता मिले भी हमें ६२ वर्ष से भी अधिक बीत चुके है जबकि दूसरी और हिंदी आम जनता की भाषा थी और है तो सवाल उठता है हिंदी भाषा की दशा क्या है और उसका ज़िम्मेदार कौन है ? क्या अंगरेजी या किसी अन्य भाषा ने उसे समाप्त कर दिया है ? जवाब है- नहीं, बिलकुल नहीं अंगरेजी ने हिन्दी को समाप्त नहीं किया है, लेकिन अंगरेजी ने हमारे देश में हिन्दी भाषियों में सेंध अवश्य लगाई है अंगरेजी के साथ लोग न चाहते हुए भी है और होंगे क्योंकि ब्रिटिश राज में ही अंगरेजी विश्व की भाषा बन गयी थी आज वैश्वीकरण के दौर में जब दूरियां कम हुई है, अंगरेजी ग्लोबल भाषा बन चुकी है और यहीं इसकी वृद्धि का मूल कारण है दूसरा हमने अंग्रेजो की दी हुई शिक्षा पध्धति को अपनाया, फलस्वरूप हमने हमारी भाषा में लिखी पुस्तकों के ज्ञान को उतना महत्व नहीं दिया आज भी हम बाहरी ज्ञान को उन्ही की भाषा में पढ़ रहे है आज भी यदि कोई हिंदी बोलता है और दूसरा यदि अंगरेजी बोलता है तो अंगरेजी बोलने वाले को ज्यादा महत्व मिलेगा, इसमें कोई शक की गुंजाइश है ही नहीं यह हमारी मानसिकता का परिचायक है हम आज भी दूषित और गुलाम मानसिकता और मनोवृति में जीते है और यहीं हिन्दी के कमज़ोर आत्मविश्वास के लिए ज़िम्मेदार है एक और बात जो दुखी करती है कि- हिन्दी आज हमारे ही देश में जो इसका जन्म स्थान है, राष्ट्र भाषा का दर्ज़ा नहीं पा सकी है, शायद नेताओं के कारण और हमारे कारण जिन्होंने कभी अन्य भाषाओं के सह अस्तित्व की बात समझने का प्रयत्न नहीं किया तमिल - हिंदी संघर्ष इसी का परिणाम था इसका सीधा लाभ अंगरेजी को मिला जो आज भी कई निजी और सरकारी कार्यालयों की भाषा है
प्रश्न उठता है की क्या वास्तव में हिन्दी इतनी कमज़ोर हो गयी है ? जवाब है - नहीं हमारे यहाँ हिंदी ने कभी बहिन भाषाओं की हत्या नहीं होने दी वरन अन्य भारतीय भाषाओं ने भी हिंदी को मज़बूत ही किया है आज भी हिंदी जानने, बोलने वाले लोग हमें विश्व के कई कोनो में मिल जाते है माना कि उनकी जड़े भारत से जुडी रही होगी किन्तु ऐसे भी कम नहीं जिनका इस देश से कोई लेना देना नहीं था, है किन्तु वे हिंदी में रूचि रखते है, हिंदी साहित्य और फिल्मो में रूचि रखते है जर्मनी, जापान , यु एस ए, ऑस्ट्रेलिया , यु के आदि कई देशो में हिन्दीभाषी लोगों कि संख्या तेजी से बढ़ी है ये वे लोग है जो हिन्दी, अंगरेजी और स्थानीय भाषा तीनो जानते है हमारे देश में भी हिंदी भाषी लोग कम नहीं हुए है, बल्कि बढे ही है, आम आदमी अब भी हिन्दी के साथ है, भले ही अंगरेजी जानने वाले लोगों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है किन्तु अंगरेजी के मुकाबले हिन्दीभाषियों की वृद्धि दर नगण्य है आज शहरीकरण के दौर के कारण नुक्सान स्थानीय भाषाओं, बोलियों को हुआ है उदाहरण के लिए मुझे याद है मैं आज से १० वर्ष पहले तक मेवाड़ी (राजस्थानी ) बोलता था किन्तु अब अधिकाँश हिन्दी और कहीं कहीं अंगरेजी भी बोलता हूँ जब गाँव जाता हूँ तो मेवाड़ी बोलता हूँ आज हिंदी देश की ग्लोबल भाषा बन गयी है, भारत में कुछ ही प्रदेश ऐसे है जहाँ हिंदी समझने वाले नहीं है आज इन्टरनेट पर हिन्दी साईट्स और ब्लोग्स मौजूद ही नहीं वरन लोकप्रिय भी है तेजी से हिन्दी का जाल बढता ही जा रहा है साथ ही अन्य भारतीय भाषाएं भी शून्य से बढकर तेजी से प्रगति कर रही है क्योंकि अब वो लोग भी यहाँ पर है जो जनता कहलाते है और हिन्दी जिनकी भाषा है, स्पष्ट है जिस तेजी से ये लोग इन्टरनेट आदि पर फैलेंगे हिंदी तब दिखाई देगी अंगरेजी से कम सही, मगर होगी, मिटेगी नहीं अंग्रेजी का बढता प्रभाव कम करना शायद संभव नहीं, किन्तु हमें अपनी हिन्दी को नहीं त्यागना होगा इसे मज़बूत तभी बनाया जा सकता है जब हम अपनी मानसिकता बदले और हिन्दी को सम्मान दे, हिन्दी भाषी को अंगरेजी के मुकाबले हे न समझे क्योंकि हम ही है जो यह स्थिति बदल सकते है, आखिर हमने ही इसे बनाया था ज़रुरत है हमें अपनी हिन्दी पर गर्व करने की, उसे दिल से अपनाने की, वर्ना अंगरेजी का दर्प तो रहेगा ही कुछ के दिलों दिमाग पर छाया हुआ जिसे मिटाया नहीं जा सकेगा क्योंकि उन्हें ज़रुरत है उसकी ताकि वो सदा ऊंचे ही बने रहे

बुधवार, 6 जनवरी 2010

नव चेतना उत्सव -२०१० /लेखक -मनीष जैन
कहा कमी है हमारे विकास में (चीन को ध्यान में रखकर )शायद हम में से बहुत से लोगों को याद होगा कि चीन जो हमारा पडौसी देश है १९५० में स्वतंत्र हुआ था , हमसे भी २-३ वर्ष बाद में किन्तु यदि हम आज के परिप्रेक्ष्य में भारत और चीन कि तुलना करे तो यह बात सरलता से नहीं मनती आज चीन विकास के मामले में नित्य नए नए आयाम बना रहा है वही हम अब भी मंथर गति से आगे बढ़ रहे है कई बातो में तो वो अमेरिका, विकसित यूरोपीय देशो और रूस आदि से भी आगे बढ़ चुका है वस्तुतः बड़े देश की समस्याएँ भी बड़ी होती है, किन्तु चीन ने जनसँख्या तथा क्षेत्रफल दोनों ही दृष्टि से बड़े राष्ट्र होने के बाद भी समस्याओं को कभी हावी नहीं होने दिया, परिणाम सामने है विकास की यंत्सिक्यंग (गंगा) ऐसे क्या कारण है, तथ्य है जिनके कारण हमारा देश भारत आज भी विकास के मामले में उतना तेजी से नहीं बढ पाया जितना बढना था जैसे कि चीन ने किया आइये प्रकाश डाले कुछ बातों पर :१। स्वार्थपरक, दलगत, जातिगत और पक्षपात पूर्ण राजनीति - चुने हुए लोग भी स्वार्थ और पक्षपात की राजनीति में लिप्त पाए गए और उन्होंने देश के विकास की बजाय दल, जाती या क्षेत्र का विकास अधिक ज़रूरी समझा ऐसा शायद धार्मिक, जातीय तथा क्षेत्रीय विविधता के कारण भी संभव है, साथ ही कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना का भी इसमें योगदान है जबकि चीन में साम्यवाद राजनीति का मूल मंत्र रहा अतः विचारो पर झगड़ने के बनिस्पत उन्होंने जनता की समस्याओं को सुलझाने में मदद की , आखिर साम्यवाद का मूल उद्देश्य भी यहीं था की सभी वर्ग समान हो जाए, विकसित हो २. भ्रष्टाचार - अंग्रेज लोग जो नौकरशाही, राजनीति हमारे लिए छोड़ गए थे, उसे ही हमने हूबहू अपना लिया परिणामस्वरूप वो सभी कमिया भी हमने अपना ली जिन्हें अंग्रेजों ने जान बूझकर छोड़ा था वर्षो की नितांत गुलामी के बाद जब जनता भूखी थी, बीमार थी, गरीब थी, तब जिन्हें भी अवसर मिला और जिनका ईमान सस्ता था, उन्होंने सच झूठ किया, और अपने घर भर दिए उस सम्पति से जो जनता की थी, जनता के लिए थी और विकास बस कागजों में ही रहा अब तो भ्रष्टाचार यहाँ हर जगह फैल गया है और एक अंग बन चुका है व्यवस्था का जबकि चीन में स्थिति इतनी गंभीर नहीं है , फलस्वरूप पैसा अधिक मात्रा में लगा और विकास हुआइसके अलावा कुछ और बाते है जिनके कारण भी चीन विकास के मामले में भारत से आगे है १. चीन की उच्च बचत दर२. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने की समुचित नीतियां और वातावरण (हमारे यहाँ नीतियां अस्पष्ट तथा अवसरवादी है, वोट की राजनीति होती है ) ३. शांतिप्रिय और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण (नित होते दंगे, विस्फोट और अन्य घटनाओं से भय का माहोल है हमारे यहाँ, अतः निवेशक बिदकते है ) ४. शीघ्र निरणय लेने की क्षमता (जो की हमारे यहाँ दलों की खीचतान में संभव नहीं हो पाता, परमाणु करार इसका उदहारण है )५. समग्र सोच के साथ व्यापारिक दृष्टि ६. संसाधनों की प्रचुरता ( चीन के पास भारत से तीन गुना क्षेत्र है जबकि जनसँख्या कुछ ही अधिक है ) ७. दृढ राजनीतिक इच्छा शक्ति तथा आत्म सम्मान और विकास से कोई समझोता नहीं (ब्रह्मपुत्र पर बाँध तथा ओलंपिक मशाल के लिए एवेरेस्ट तक सड़क बनाने की सोच चीन की दृढ इच्छा शक्ति दर्शाती है )८. निर्माण का शक्तिशाली केंद्र (भारत अभी भी दूसरो पर किसी न किसी रूप में निर्भर है )९. विदेशी व्यापार बढाना और सस्ती वस्तुओं के माध्यम से अन्य देशो के बाज़ार में सेंध लगाना, नए नए बाज़ार ढूंढना तथा मिली राशी को विकास पर खर्च करना (सतत और सकारात्मक बाजारी उपाय )१०. स्रजनात्मक, रोजगारोन्मुख तथा खोजी शिक्षा देकर कार्य उत्पादकता में वृद्धि उपरोक्त कुछ तथ्य तथा कुछ कारण है जिनके कारण आज भी हम पिछड़े है जबकि हमारा पडौसी देश चीन हमसे विकास में आगे है ज़रुरत है नेताओं को , जनता को सोचने की तथा कुछ कर दिखाने की एक एक कारण और बिंदु का हल संभव है बशर्ते प्रयत्न किया जाए .

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

आमंत्रित आतिथी की कोड संख्या .....
नवचेतना विशेषांक में भाग लेने हेतु नमन ....



१०० -Akhilesh Kumar Pathak
९९- Satya P. Gautam
९८- Ranjana Kanti
९७- mar Dattani
९५- Nutan Thakur
९४- Vinayak Sharma
94 -भारत त्रिपाठी
९३ -Girindranath Jha
९२- Gopal Chakravarti
९१- Gargi A. Bagchi
९०- Manish Jain
८९- Ritesh Jangid
८८- Raju Jangid
88- प्रबल प्रताप सिंह
८७- Alok Tomar
८६- Vibha Rani
८५- Ambar Buxi

शुभकामनाये

नूतन वर्ष की मंगल कामनाओ का साथ - साथ इस नव चेतना उत्सव -२०१० में भाग लेने हेतु मनोरंजन कलश और बाल साहित्य क्लब की और से बधाई ....पत्रिका का जनवरी अंक पाने हेतु पता केशव जांगिड @जीमेल .कॉम या मोबाईल से प्रेषित करे (०९२१०५००१६३० )..... निमंत्रण में जो विषय है ,से सम्बंबित आलेख ,कहानी या राय हिंदी में इसं पर पोस्ट करे ...केशव जांगिड @ जीमेल .कॉम ....या उत्सव में सात से बारहा तारीख तक १२.०० से उत्सव में दे ....
आप की कोड इस प्रकार है .....
०१ - केशव जांगिड (मुख्य निदेशक , बाल साहित्य क्लब )
०२ - कौशल किशोर (संपादक ,मनोरंजन कलश)
०३ - विजय राणा
०४ - सुषमा के के
०५ - डा जयप्रकाश (प्रमुख , अमृत कलश संस्थान)
०६ - राजकिशोर (ख्यात लेखक )
०७ - विपिन चौधरी (लेखिका )
०८ - शम्भू नाथ
१० - शिशिर पंडित
११ - नन्दलाल भारती
१२ - पंकज त्रिवेदी
१३ - सुनीता जांगिड
१४ - संजय द्विवेदी
१५ - वैभव शर्मा
१६ - एल्ल्पी माहवार
१७ - सुनील सिंघल
१८ - अनिल जांगिड ........... जारी